बिरसा मुंडा जयंती पर जनजाति गौरव दिवस के उपलक्ष्य में पीजी कॉलेज में व्याख्यान कार्यक्रम आयोजित
शिवपुरी-ब्रिटिश हुकूमत के दौर में जनजाति समाज जिस सांस्कृतिक आक्रमण, राजस्व और विस्थापन से संबंधित आक्रमण से जूझ रहा था, उसके खिलाफ संघर्ष को नेतृत्व देने का काम, ट्रायबल मूवमेंट को ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ भारत की आजादी के संघर्ष से जोड़ने का काम भगवान बिरसा मुंडा ने किया. उक्त विचार शासकीय पीजी कॉलेज शिवपुरी की जनभागीदारी समिति के अध्यक्ष अमित भार्गव ने जनजाति गौरव दिवस के उपलक्ष्य में आयोजित व्याख्यान कार्यक्रम को संबोधित करते हुए व्यक्त किये.
उन्होंने कहा कि हमारी सरकार ने बिरसा मुंडा की जयंती के दिन को 'जनजाति गौरव दिवस' के रूप में मनाने का निर्णय लिया है. बिरसा मुंडा के जीवन की कहानी आजादी के आंदोलन में जनजाति समाज के योगदान के गौरवपूर्ण पन्नों से हम सभी को जोड़ने की कहानी है. अंग्रेज हुकूमत और बिरसा मुंडा के बीच आखिरी निर्णायक लड़ाई दुम्बरा पहाड़ी पर 1900 में हुई. 500 रुपये के ईनाम के लालच में किसी ने गद्दारी करके ब्रिटिश फौज के हाथों धोखे से बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करवा दिया. वे रांची जेल में रहे. ब्रिटिश हुकूमत ने स्लो पॉइजन देकर वहाँ उनकी हत्या करवा दी. केवल 25 बरस के अपने जीवन के छोटे से कालखण्ड में देश की आजादी के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग बिरसा मुंडा ने कर दिया.
व्याख्यान कार्यक्रम को संबोधित करते हुए प्रोफेसर दिग्विजय सिंह सिकरवार ने कहा कि मिशनरियों के छल और छद्म से धर्मांतरण के अभियान के खिलाफ संघर्ष करते हुए भगवान बिरसा मुंडा ने जनजाति समाज के लोगों को भारत की मूल सांस्कृतिक धारा से जोड़ने के लिए 'उलगुलान' अर्थात क्रांति को अपना बेजोड़ नेतृत्व दिया. अंग्रेज हुकूमत के पास आधुनिक बंदूकें थीं, एनफील्ड राइफल्स थीं. आदिवासियों के पास तीर, कमान, धनुष, भाले थे. आधुनिक हथियार नहीं थे. लेकिन संघर्ष का जबरदस्त जज्बा था. भारत की संस्कृति और सामाजिक संरचना में जनजातियों के गौरवपूर्ण इतिहास को याद करते हुए प्रोफेसर दिग्विजय सिंह सिकरवार ने कहा कि अरुणाचल प्रदेश की जनजातियों में से एक जनजाति है 'मिजोमिश्मी जनजाति' जो खुद को 'भगवान कृष्ण' की पटरानी 'रूक्मिणी' का वंशज मानती है.
'नागालैंड' के शहर 'डीमापुर' को कभी 'हिडिंबापुर' के नाम से जाना जाता था और यहाँ रहने वाली 'डिमाशा जनजाति' खुद को महाभारत के 'भीम' की पत्नी 'हिडिम्बा' का वंशज मानती है. 'महाराणा प्रताप' के संघर्ष के साथी, उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर मुगलों से लड़ने वाले 'भील' रहे हैं. इतिहास साक्षी है कि भील 'राणा पुंजा' के नेतृत्व में मातृभूमि और अपने ‘क़ीका’ के लिये प्राणों की आहुति देने हल्दीघाटी के मैदान में आ डटे थे. मेवाड़ के राजकीय चिन्ह पर एक तरफ 'भील राणा पुंजा' सुशोभित हैं. भारत की जनजातियों का, वनवासियों का हमारी संस्कृति और हमारे समाज से गहरा और स्नेहिल जुड़ाव रहा है.
No comments:
Post a Comment